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इंसानियत का पैगाम देता है ईद उल फितर का पर्व...!


आईबीखांन की कलम से...!
ईद पर विशेष...
कैलेंडर के नौवें महीने को रमजान का महीना कहते हैं और इस महीने में अल्लाह के सभी बंदे रोजे रखते हैं। इसके बाद दसवें महीने की ‘शव्वाल रात’ पहली चाँद रात में ईद-उल-फितर मनाया जाता है। इस रात चाँद को देखने के बाद ही ईद-उल-फितर का ऐलान किया जाता है। ईद-उल-फितर ऐसा त्यौहार है जो सभी ओर इंसानियत की बात करता है, सबको बराबर समझने और प्रेम करने की बात की राह दिखाता है। इस दिन सबको एक समान समझना चाहिए और गरीबों को खुशियाँ देनी चाहिए। कहते है कि रमजान के इस महीने में जो नेकी करेगा और रोजा के दौरान अपने दिल को साफ-पाक रखता है, नफरत, द्वेष एवं भेदभाव नहीं रखता, मन और कर्म को पवित्र रखता है, अल्लाह उसे खुशियां जरूर देता है। रमजान महीने में रोजे रखना हर मुसलमान के लिए एक फर्ज कहा गया है। भूखा-प्यासा रहने के कारण इंसान में किसी भी प्रकार के लालच से दूर रहने और सही रास्ते पर चलने की हिम्मत मिलती है।
ईद का आगमन मनुष्य के जीवन को आनंद और उल्लास से आप्लावित कर देता है। ईद लोगों में बेपनाह खुशियां बांटती है और आपसी मोहब्बत का पैगाम देती है। ईद का मतलब है एक ऐसी खुशी जो बार-बार हमारे जीवन में आती है और उसे बांटकर बहुगुणित किया जाता है। गरीब से गरीब आदमी भी ईद को पूरे उत्साह से मनाता है। दुःख और पीड़ा पीछे छूट जाती है । अमीर और गरीब का अंतर मिट चुका है। खुदा के दरबार में सब एक हैं, अल्लाह की रहमत हर एक पर बरसती है। अमीर खुले हाथों दान देते हैं। यह कुरान का निर्देश है कि ईद के दिन कोई दुःखी न रहे। यदि पड़ोसी दुःख में है तो उसकी मदद करो। यदि कोई असहाय है तो उसकी सहायता करो। यही धर्म है, यही मानवता है।
यह त्यौहार परोपकार एवं परमार्थ की प्रेरणा का विलक्षण अवसर भी है, खुदा तभी प्रसन्न होता है जब उसके जरूरतमद बन्दों की खिदमत की जाये, सेवा एवं सहयोग के उपक्रम किये जाये। असल में ईद बुराइयों के विरुद्ध उठा एक प्रयत्न है, इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता है, औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। आनंद और उल्लास के इस सबसे मुखर त्योहार का उद्देश्य मानव को मानव से जोड़ना है। मैंने बचपन से देखा कि हिन्दुओं का दीपावली और मुसलमानों की ईद- दोनों ही पर्व-त्यौहार इंसानियत से जुडे़ है।

रोजा वास्तव में अपने गुनाहों से मुक्त होने, उससे तौबा करने, उससे डरने और मन व हृदय को शांति एवं पवित्रता देने वाला है। रोजा रखने से उसके अंदर संयम पैदा होता है, पवित्रता का अवतरण होता है और मनोकामनाओं पर काबू पाने की शक्ति पैदा होती है। एक तरह से त्याग एवं संयममय जीवन की राह पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होती है।

इसलिए ईद की खुशियों मंे उन बेबस, लाचार, मजबूर लोगों को भी सम्मिलित करना जरूरी है जो इसमें शामिल होने की हैसियत नहीं रखते। इसीलिए इस्लाम में हर मुसलमान पर सदका ए फित्र वाजिब है। इसका मतलब है कि अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए रख कर बाकी साढ़े बावन तोले चांदी या उतने ही रुपये या वह भी न हों तो पौने दो किलो अनाज ही या फिर अपनी चल पूंजी का ढ़ाई प्रतिशत हिस्सा दान के रूप में जरूरतमंदों में बांट कर ईद की खुशियों में उनके बराबर के भागीदार बनें। एक संतुलित एवं स्वस्थ समाज निर्माण यह एक आदर्श प्रकल्प है। इसलिए ईद के दिन प्रत्येक मुसलमान ईद की नमाज पढ़ने के लिए ईदगाहों में एकत्रित होते हैं, आपस में गले मिलते हैं, अपने मित्रों-संबंधियों से मिलने जाते हैं, दान करते हैं और अपने पूर्वजों की मजारों पर जाकर प्रार्थना करते हैं। ईद का सन्देश समतामूलक मानव समाज की रचना है। यही कारण है कि हाशिये पर खड़े दरिद्र और दीन-दुःखी, गरीब-लाचार लोगों के दुख-दर्द को समझें और अपनी कोशिशों से उनके चेहरों पर मुस्कान लाएं-तभी हमें ईद की वास्तविक खुशियां मिलेंगी...9413063300

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