आखिर फीका क्यो पडने लगा है अब होली का रंग
*आईबीखान की कलम से*
जैतारण।मारवाड के विभिन्न भागो मे एक समय वो भी था जब होली का त्यौहार नजदीक आते ही यहां के लोगो मे होली की रंगत चढने लग जाया करती थी,लेकिन बीते कुछ सालो से न जाने क्यो अब होली की रंगत फीकी पडने लगी है।अब जब होली के त्यौहार मे चंद दिन ही शेष रहे है मगर या न तो कोई होली का हुडदंग है और न ही होली आगमन का उल्लास...!सच कहू तो वर्तमान पीढी के लिए यह पर्व एक दिन का ही पर्व बनने लगा है।ग्रामीण संस्कृति मे अपने जीवन की शुरूआत कर भले ही मे अपने छोटे से गांव को छोडकर शहर की आबोहवा ले रहा हूं,लेकिन न तो शहर मे होली की रंगत है और न ही अब गांवो मे वो होली का उल्लास है।अलबता एक जमाना वो भी था जब होली का रोपण होते ही गांवो की गलियो मे लोग धमाल मचाने लग जाया करते थे।महिलाएं गांव के बीच मे अपनी सखियो के साथ देर रात तक लूर गाया करती थी तो गांव मे लोग चंग की थाप पर फागुनी मस्ती मे गैर नृत्य किया करते थे,और तो और गांवो मे देर रात तक लोग धमा चौकडी लगाया करते थे।लेकिन आज की स्थिति विपरित हो गई है।भौतितकता एवं भागदौड की इस जिन्दगी मे लोग अपनी संस्कृति को भूल रहे है।जानकार लोग बताते है कि एक तो टी.वी.संस्कृति के बढते प्रसार एवं लोगो मे सहनशीलता की कमी के कारण होली जैसै रंगीले त्यौहार को भूल रहे है।अब गांवो मे न तो चंग की थाप सुनाई देती है और न ही महिलाओ की वो मधुर लूर की स्वरलहरिया बिखर रही है।पहले लोग एक दूसरो से मसखरी एवं मजाक भी करते तो कोई किसा का बुरा नही मानते थे,लेकिन अब तो यह करना भी मंहगा साबित हो जाता है।पहले होली पर कौमी एकता की अनेको मिशाले देखने को मिलती थी जहां लोग एक दूसरो पर जमकर रंग-गुलाल उडेल देते तो कोई बुरा नही मानते थे मगर अब तो लोग होली के रंग से मारे डरके अपने घरो से बाहर निकलना भी पसंद नही करते है।न जाने ऐसा क्या हो गया जो अब होली का रंग फीका पड रहा है...।9413063300
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